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हम तबाही की देहलीज़ पर थे खड़े / ham tabahi ki dehleez par the khade

हम तबाही की देहलीज़ पर थे खड़े
थी जफा ही जफा आमने सामने
ये तो कहिए खु़दा का करम हो गया
आ गए मुस्तफा आमने सामने

वो नमाज़े-अ़ली हो गई जब क़ज़ा
हुक्मे आक़ा से सूरज यह कहने लगा
ऐ अली तुम नमाज़ अपनी करलो अ़दा
लो में फि़र आ गया आमने सामने

ज़ालिमों से कभी खौफ़ खाना नहीं
सर कटाना मगर सर झुकाना नहीं
फ़तहो नुसरत के दर खु़द ही खुल जाएंगे
रखिए करबो-बला आमने सामने

एक मुखा़लिफ बना गरके़ ज़िल्लत हुआ
एक आ़शिक़ बना आ़ला हज़रत हुआ
देखिए दहर से मिट गया थानवी
आए जिस दम रज़ा आमने सामने

मुफ्ती-ए-नज्द की नींद उड़ाता रहा
आ़ला ह़ज़रत का नारा लगाता रहा
सारे नजदी वहाबी की नानी मरी
जब मुजाहिद हुआ आमने सामने

लाख तूफ़ां उठे हक़ को हक़ ही कहा
जिसने जेसे क्या वेसा फ़तवा दिया
पीठ पीछे नहीं कहते अख़्तर रज़ा
मेरे ताजुश्शरियह में तुम पर फ़िदा
तुमने जो भी कहा आपने सामने

सुन्नी होने की पहचान दे दूंगा में
जान लेलूं गा या जान दे दूंगा में
दुश्मने-आ़ला हज़रत कहां छुप गया
है जो हिम्मत तो आ आमने सामने

नात ख़्वां
सैफ़ रज़ा कानपुरी


About: ham tabahi ki dehleez par the khade lyrics

यह नात शरीफ एक भावपूर्ण और गहरी श्रद्धा से भरी हुई कविता की उत्कृष्ट मिसाल है, जो मोहब्बत और अकीदत के जज़्बात को खूबसूरती से पेश करती है। पहले बंद में हुज़ूर नबी-ए-करीम ﷺ की आमद का ज़िक्र है कि किस तरह सख्तियों और आज़माइशों के बावजूद अल्लाह का करम हुआ और महबूब-ए-दो-आलम ﷺ का दीदार नसीब हुआ। इसमें अकीदतमंदों के दिल की कैफियत को बयान किया गया है कि उनके सामने जब मुस्तफा ﷺ तशरीफ लाए, तो उनकी ज़िंदगी की सारी खुशियां मुकम्मल हो गईं।

दूसरे बंद में हज़रत अली रज़ीअल्लाहु अन्हु की अज़मत का ज़िक्र है, जब उनकी नमाज़ के लिए सूरज को ठहरने का हुक्म दिया गया। यह वाक़ेआ इस्लाम की तारीख में ईमान और क़ुरबानी की बुलंद मिसाल पेश करता है। शायर ने बख़ूबी बयान किया है कि अल्लाह के नबी ﷺ के हुक्म से कायनात के निज़ाम में भी तब्दीली हो सकती है, जिससे ईमान और अक़ीदत का रंग और गहरा हो जाता है।

तीसरे बंद में शायर ने ज़ुल्म के खिलाफ सब्र और इस्तक़ामत का पैगाम दिया है। यह कहा गया है कि सरफ़रोशी और हक़ के लिए लड़ना एक मोमिन की पहचान है। अहल-ए-सुन्नत की अक़ीदत और हुज़ूर ﷺ से मोहब्बत को शायर ने इस अंदाज़ में पेश किया है कि जो भी इश्क-ए-रसूल ﷺ में फ़ना हो जाता है, वह दुनिया और आख़िरत में बुलंद मुक़ाम हासिल करता है। नात के अशआर एक आशिक़ के दिल की गहराइयों को बयान करते हैं, जो अपनी जान भी क़ुर्बान करने को तैयार है, लेकिन हक़ के खिलाफ सर झुकाने को कभी क़ुबूल नहीं करता।